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Kindle Notes & Highlights
हरी-हरी दूब पर ओस की बूँदें अभी थीं, अब नहीं हैं। ऐसी खुशियाँ जो हमेशा हमारा साथ दें कभी नहीं थीं, कभी नहीं हैं।
क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊँ? कण-कण में बिखरे सौंदर्य को पीऊँ?
क्या खोया, क्या पाया जग में, मिलते और बिछड़ते मग में, मुझे किसी से नहीं शिकायत, यद्यपि छला गया पग-पग में, एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें।
जन्म-मरण का अविरत फेरा, जीवन बंजारों का डेरा, आज यहाँ, कल कहाँ कूच है, कौन जानता, किधर सवेरा,
मन हारकर, मैदान नहीं जीते जाते, न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।
जड़ता का नाम जीवन नहीं है, पलायन पुरोगमन नहीं है। आदमी को चाहिए कि वह जूझे परिस्थितियों से लड़े, एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।
होलिका आपात् की फिर माँगती प्रह्लाद। अमर है गणतंत्र, कारा के खुलेंगे द्वार, पुत्र अमृत के न विष से मान सकते हार।
ऐसी ऊँचाई, जिसका परस, पानी को पत्थर कर दे, ऐसी ऊँचाई जिसका दरस हीन भाव भर दे,
सच्चाई यह है कि केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती, सबसे अलग-थलग परिवेश से पृथक्, अपनों से कटा-बँटा, शून्य में अकेला खड़ा होना, पहाड की महानता नहीं, मजबरी है। ऊँचाई और गहराई में आकाश-पाताल की दूरी है।
भीड़ में खो जाना, यादों में डूब जाना, स्वयं को भूल जाना, अस्तित्व को अर्थ, जीवन को सुगंध देता है।
किंतु इतने ऊँचे भी नहीं, कि पाँव तले दूब ही न जमे, कोई काँटा न चुभे, कोई कली न खिले।
सभ्यता की निष्ठुर दौड़ में, संस्कृति को पीछे छोड़ता हुआ,
अंतिम यात्रा के अवसर पर, विदा की वेला में, जब सबका साथ छूटने लगता है, शरीर भी साथ नहीं देता, तब आत्मग्लानी से मुक्त यदि कोई हाथ उठाकर यह कह सकता है कि उसने जीवन में जो कुछ किया, यही समझकर किया, किसी को जान-बूझकर चोट पहुँचाने के लिए नहीं, सहज कर्म समझकर किया, तो उसका अस्तित्व सार्थक है, उसका जीवन सफल है।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए, आँधियों में जलाए हैं बुझते दिए, आज झकझोरता तेज तूफान है, नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।
आहुति बाकी,यज्ञ अधूरा, अपनों के विघ्नों ने घेरा, अंतिम जय का वज्र बनाने,नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें तो इसमें बुराई क्या है? हाँ, खोज का सिलसिला न रुके, धर्म की अनुभूति, विज्ञान का अनुसंधान, एक दिन, अवश्य ही रुद्ध द्वार खोलेगा। प्रश्न पूछने के बजाय यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।
यही आग सरयू के तट पर दशरथजी के राजमहल में, धन-समूह में चल चपला-सी, प्रगट हुई प्रज्वलित हुई थी। दैत्य-दानवों के अधर्म से पीड़ित पुण्यभूमि का जन-जन, शंकित मन-मन, त्रसित विप्र, आकुल मुनिवर-गण, बोल रही अधर्म की तूती दुस्तर हुआ धर्म का पालन। तब स्वदेश-रक्षार्थ देश का सोया क्षत्रियत्व जागा था। राम-रूप में प्रगट हुई यह ज्वाला, जिसने असुर जलाए देश बचाया, वाल्मीकि ने जिसको गाया।
अमर भूमि में, समर भूमि में, धर्म भूमि में, कर्म भूमि में, गूँज उठी गीता की वाणी, मंगलमय जन-जन कल्याणी।
अपढ़, अजान विश्व ने पाई शीश झुकाकर एक धरोहर। कौन दार्शनिक दे पाया है अब तक ऐसा जीवन-दर्शन? कालिंदी के कल कछार पर कृष्ण-कंठ से गुँजा जो स्वर अमर राग है, अमर राग है।
कर्तव्य के पुनीत पथ को हमने स्वेद से सींचा है, कभी-कभी अपने अश्रु और– प्राणों का अर्घ्य भी दिया है।

