Nitish Kumar Singh

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मैं भीड़ को चुप करा देता हूँ, मगर अपने को जवाब नहीं दे पाता, मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर, जब जिरह करता है, मेरा हलफनामा मेरे ही खिलाफ पेश करता है, तो मैं मुकदमा हार जाता हूँ, अपनी ही नजर में गुनहगार बन जाता हूँ। तब मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, न दूर का, न पास का, मेरी उम्र अचानक दस साल बढ़ जाती है, मैं सचमुच बूढ़ा हो जाता हूँ।
चुनी हुई कविताएँ
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