अंतिम यात्रा के अवसर पर, विदा की वेला में, जब सबका साथ छूटने लगता है, शरीर भी साथ नहीं देता, तब आत्मग्लानी से मुक्त यदि कोई हाथ उठाकर यह कह सकता है कि उसने जीवन में जो कुछ किया, यही समझकर किया, किसी को जान-बूझकर चोट पहुँचाने के लिए नहीं, सहज कर्म समझकर किया, तो उसका अस्तित्व सार्थक है, उसका जीवन सफल है।

