Nitish Kumar Singh

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सपना जनमा और मर गया, मधु-ऋतु में ही बाग झर गया, तिनके बिखरे हुए बटोरूँ या नव-सृष्टि सजाऊँ मैं? राह कौन-सी जाऊँ मैं? दो दिन मिले उधार में, घाटे के व्यापार में, क्षण-क्षण का हिसाब जोड़ूँ या पूँजी शेष लुटाऊँ मैं? राह कौन-सी जाऊँ मैं?
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