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निरालाजी ने उस वीरांगना को नमन करने के लिए ताँगा थोड़ी देर रुकवा लिया। उनकी नजर लक्ष्मीबाई के स्मारक के निकट बैठी एक निर्धन महिला पर गई। वह महिला सर्दी से अपने को बचाने के प्रयास में लगी थी। जैसे ही निरालाजी की नजर उस महिला के ऊपर गई, तो महाकवि ने अपना कंबल उतारकर उस महिला को ओढ़ा दिया।
सूर्य एक सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता मगर ओस भी तो एक सच्चाई है यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊँ? कण-कण में बिखरे सौंदर्य को पीऊँ? सूर्य तो फिर भी उगेगा, धूप तो फिर भी खिलेगी, लेकिन मेरी बगीची की हरी-हरी दूब पर, ओस की बूँद हर मौसम में नहीं मिलेगी।
बाधाएँ आती हैं आएँ, घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पाँवों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों से हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।
हानि-लाभ के पलड़ों में तुलता जीवन व्यापार हो गया, मोल लगा बिकनेवाले का बिना बिका बेकार हो गया,
सपना जनमा और मर गया, मधु-ऋतु में ही बाग झर गया, तिनके बिखरे हुए बटोरूँ या नव-सृष्टि सजाऊँ मैं? राह कौन-सी जाऊँ मैं? दो दिन मिले उधार में, घाटे के व्यापार में, क्षण-क्षण का हिसाब जोड़ूँ या पूँजी शेष लुटाऊँ मैं? राह कौन-सी जाऊँ मैं?
मैं भीड़ को चुप करा देता हूँ, मगर अपने को जवाब नहीं दे पाता, मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर, जब जिरह करता है, मेरा हलफनामा मेरे ही खिलाफ पेश करता है, तो मैं मुकदमा हार जाता हूँ, अपनी ही नजर में गुनहगार बन जाता हूँ। तब मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, न दूर का, न पास का, मेरी उम्र अचानक दस साल बढ़ जाती है, मैं सचमुच बूढ़ा हो जाता हूँ।
ऊँचे पहाड़ पर, पेड नहीं लगते, पौंधे नहीं उगते, न घास ही जमती है। जमती है सिर्फ बर्फ, जो कफन की तरह सफेद और मौत की तरह ठंडी होती है। खेलती, खिलखिलाती नदी, जिसका रूप धारण कर अपने भाग्य पर बूँद-बूँद रोती है।
जो जितना ऊँचा, उतना ही एकाकी होता है, हर भार को स्वयं ही ढोता है, चेहरे पर मुसकानें चिपका, मन-ही-मन रोता है।
जब वह आत्मालोचन करता है, मन की परतें खोलता है, स्वयं से बोलता है, हानि-लाभ का लेखा-जोखा नहीं, क्या खोया, क्या पाया का हिसाब भी नहीं, जब वह पूरी जिंदगी को ही तौलता है, अपनी कसौटी पर स्वयं को ही कसता है, निर्ममता से निरखता, परखता है, तब वह अपने मन से क्या कहता है! इसी का महत्त्व है, यही उसका सत्य है।
अंतिम यात्रा के अवसर पर, विदा की वेला में, जब सबका साथ छूटने लगता है, शरीर भी साथ नहीं देता, तब आत्मग्लानी से मुक्त यदि कोई हाथ उठाकर यह कह सकता है कि उसने जीवन में जो कुछ किया, यही समझकर किया, किसी को जान-बूझकर चोट पहुँचाने के लिए नहीं, सहज कर्म समझकर किया, तो उसका अस्तित्व सार्थक है, उसका जीवन सफल है।
हम पड़ाव को समझे मंजिल, लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल, वर्तमान के मोहजाल में आनेवाला कल न भुलाएँ। आओ फिर से दिया जलाएँ।
प्रत्येक नया नचिकेता, इस प्रश्न की खोज में लगा है। सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है। शायद यह प्रश्न प्रश्न ही रहेगा। यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें तो इसमें बुराई क्या है? हाँ, खोज का सिलसिला न रुके, धर्म की अनुभूति, विज्ञान का अनुसंधान, एक दिन, अवश्य ही रुद्ध द्वार खोलेगा। प्रश्न पूछने के बजाय यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।
पाँच हजार साल की संस्कृति— गर्व करें या रोएँ? स्वार्थ की दौड़ में कहीं आजादी फिर से न खोएँ।
वही मंजिल वही कमरा वही खिड़की वही पहरा राज बदला ताज बदला पर नहीं समाज बदला।

