रात पश्मीने की
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जिस्म का इक अंग चुप चुप सा है
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वह क्या जाने, जब वो रूठे मेरी रगों में ख़ून की गर्दिश मद्धम पड़ने लगती है
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बस चन्द करोड़ों सालों में सूरज की आग बुझेगी जब और राख उड़ेगी सूरज से जब कोई चाँद न डूबेगा और कोई ज़मीं न उभरेगी तब ठंडा बुझा इक कोयला सा टुकड़ा ये ज़मीं का घूमेगा भटका भटका मद्धम ख़किसत्री रोशनी में! मैं सोचता हूँ उस वक़्त अगर काग़ज़ पे लिखी इक नज़्म कहीं उड़ते उड़ते सूरज में गिरे तो सूरज फिर से जलने लगे!!
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कहकशाँ
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सय्यारा
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ये एक फ़र्ज़ी गुफ़्तगू, और एकतर्फ़ा— एक ऐसे शख़्स से, ख़्याल जिसकी शक्ल है ख़्याल ही सबूत है।
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कौन है जो आवाज़ नहीं करता लेकिन— दीवार से टेक लगाये बैठा रहता है।
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काएनात में कैसे लोगों की सोहबत में रहते हो तुम
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काले घर में सूरज रख के, तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे, मैंने एक चिराग़ जला कर, अपना रस्ता खोल लिया
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तुमने एक समन्दर हाथ में लेकर, मुझ पर ढ़ेल दिया मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
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मौत की शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई मैंने जिस्म का ख़ोल उतार के सौंप दिया-और रूह बचा ली
Karan Kumar
#Guljar #poetry #khuda
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जो ले के मेरी उम्र का एक दिन भागता जा रहा था
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दूर गिरा जा कर मैं जैसे, रौशनियों के धक्के से परछाईं ज़मीं पर गिरती है!
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फ़ुर्क़त
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आफ़ताब
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ग़ैब से कोई भी आवाज़ नहीं आई किसी की, ना ख़ुदा की-ना पुलिस की!! सब के सब भूने गये आग में, और भस्म हुये। मौजज़ा कोई भी उस शब ना हुआ!!
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आज़माइश की थी कल रात ख़ुदाओं के लिये कल मेरे शहर में घर उनके जलाये सब ने!!
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आग कर लेती है तिनकों पे गुज़ारा लेकिन— आशियानों को निगलती है निवालों की तरह, आग को सब्ज़ हरी टहनियाँ अच्छी नहीं लगतीं, ढूंडती है, कि कहीं सूखे हुये जिस्म मिलें!
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सर नहीं काटा, किसी ने भी, कहीं पर कोई— लोगों ने टोपियाँ काटी थीं कि जिनमें सर थे!
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लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं, और काट लें तो फिर उनके ज़ख़्म नहीं भरते!
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शीशम अब तक सहमा सा चुपचाप खड़ा है, भीगा भीगा ठिठुरा ठिठुरा। बूँदें पत्ता पत्ता कर के, टप टप करती टूटती हैं तो सिसकी की आवाज़ आती है! बारिश के जाने के बाद भी, देर तलक टपका रहता है! तुमको छोड़े देर हुयी है— आँसू अब तक टूट रहे हैं
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मुँह ही मुँह, कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है ये बुड्ढा दरिया दिन दोपहरे, मैंने इसको ख़र्राटे लेते देखा है ऐसा चित बहता है दोनों पाँव पसारे पत्थर फेकें, टांग से खेंचें, बगले आकर चोंचे मारें टस से मस होता ही नहीं है चौंक उठता है, जब बारिश की बूँदें आ कर चुभती हैं धीरे धीरे हाँफने लग जाता है उसके पेट का पानी।
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ग़ुर्राता, चिंघाड़ता बादल— अक्सर ऐसे लूट के ले जाता है बस्ती, जैसे ठाकुर का कोई ग़ुन्डा, बदमस्ती करता निकले इस बस्ती से!!
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आओ फिर से लड़ कर देखें शायद इस से बेहतर कोई और सबब मिल जाए हम को फिर से अलग हो जाने का!!
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“इतनी सी आग है, और उस पे धुएँ को जो गुमां होता है वो कितना बड़ा है”
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ये राह बहुत आसान नहीं, जिस राह पे हाथ छुड़ा कर तुम यूं तन तन्हा चल निकली हो इस ख़ौफ़ से शायद राह भटक जाओ न कहीं हर मोड़ पे मैने नज़्म खड़ी कर रखी है!
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शक्ल पर लगवा के मोहरें ख़्वाब साबित करने पड़ते है।।
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और फिर दाग़ नहीं छूटते पहनी हुई पोशाकों के
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सलाख़ों के पीछे पड़े इन्क़लाबी की आँखों में भी राख उतरने लगी है। दहकता हुआ कोयला देर तक जब ना फूँका गया हो, तो शोले की आँखों में भी मोतिये की सफ़ेदी उतर आती है!
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लहू होना था इक रिश्ते का, सो वह हो गया उस दिन—! उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फ़र्श से उस शब, किसी ने काट लीं नब्ज़ें
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कोहरे की रेशमी ख़ुशबू में, ख़ुशबू की तरह ही लिपटे रहें और जिस्म के सोंधे पर्दों में रूहों की तरह लहराते रहें!!
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कोई गुज़रा है वहां से शायद धूप में डूबा हुआ ब्रश लेकर बर्फ़ों पर रंग छिड़कता हुआ-जिस के क़तरे पेड़ों की शाख़ों पे भी जाके गिरे हैं
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सिर्फ मिट्टी है ये मिट्टी—— मिट्टी को मिट्टी में दफ़नाते हुये रोते हो क्यों?
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हथेलियों से आँख के चराग़ भी बुझा दिये
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उन पर काले काले पंछी—— ऐसे ध्यान लगाये बैठे रहते हैं जैसे कोई हिन्दी के अक्षर ला कर, रख जाता है! शाम पड़े ही, रोज़ाना कोई राज कवि इन तारों पर, इक दोहा लिख जाता है!
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बड़ी हसरत है पूरा एक दिन इक बार मैं अपने लिये रख लूँ, तुम्हारे साथ पूरा एक दिन बस ख़र्च करने की तमन्ना है!!
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जब जब पतझड़ में पेड़ों से पीले पीले पत्ते मेरे लॉन में आ कर गिरते हैं— रात को छत पर जा कर मैं आकाश को तकता रहता हूँ— लगता है कमज़ोर सा पीला चाँद भी शायद, पीपल के सूखे पत्ते सा, लहराता लहराता मेरे लॉन में आ कर उतरेगा!!
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इक याद बड़ी बीमार थी कल, कल सारी रात उसके माथे पर, बर्फ़ से ठंडे चाँद की पट्टी रख रख कर— इक इक बूँद दिलासा दे कर, अज़हद कोशिश की उसको ज़िन्दा रखने की! पौ फटने से पहले लेकिन— आख़री हिचकी लेकर वह ख़ामोश हुयी!!
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‘फ़ैज़’ से मिलने गया था, ये सुना है, ‘फ़ैज़’ से कहने, कोई नज़्म कहो, वक़्त की नब्ज़ रुकी है! कुछ कहो, वक़्त की नब्ज़ चले!!
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लाख दिनों के बाद मैं जब भी तुमसे मिल कर आता हूँ पीछे पीछे आती तेरी दो आँखों की चाप सुनाई देती है। कई दिनों तक यूँ लगता है, मैं चाहे जिस राह से गुज़रूँ, देख रही होगी तू मुझको!!
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कोई क़ब्र हिले ना जागे, लोग अपने अपने जिस्मों की क़ब्रों में बस मिट्टी ओढ़े दफ़्न पड़े हैं!
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ज़िन्दगी किस क़दर आसां होती रिश्ते गर होते लिबास— और बदल लेते क़मीज़ों की तरह!
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रात भर ऐसे लड़ी जैसे कि दुश्मन हो मेरी! आग की लपटों से झुलसाया, कभी तीरों से छेदा, जिस्म पर दिखती हैं नाख़ुनों की मिर्चीली खरोंचें और सीने पे मेरे दाग़ी हुयी दाँतों की मोहरें, रात भर ऐसे लड़ी जैसे कि दुश्मन हो मेरी! भिनभनाहट भी नहीं सुबह से घर में उसकी, मेरे बच्चों में घिरी बैठी है, ममता से भरा शहद का छत्ता लेकर!!
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रेन कोट में गर्मा गरम काफ़ी की सांसें उठ उठ कर चश्मा धुंधला कर जाती थीं भाप के फ़िल्टर में तुम ‘वाटर पेनटिंग’ जैसी लगती थीं!
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मरासिम पुराने हैं महमां ये घर में आयें तो चुभता नहीं धुआँ चूल्हे नहीं जलाये कि बस्ती
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आँखों के पोंछने से लगा आग का पता यूं चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ
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कितनी जल्दी मैली करता है पोशाकें रोज़ फ़लक सुबह को रात उतारी थी और शाम को शब पहनाई भी
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माँ ने जिस चाँद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने रात भर रोटी नज़र आया है वो चाँद मुझे!
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वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।
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पर्चियाँ बँट रही हैं गलियों में अपने क़ातिल का इन्तख़ाब करो वक़्त ये सख़्त है चुनाव का।
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