Karan Kumar

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मुँह ही मुँह, कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है ये बुड्ढा दरिया दिन दोपहरे, मैंने इसको ख़र्राटे लेते देखा है ऐसा चित बहता है दोनों पाँव पसारे पत्थर फेकें, टांग से खेंचें, बगले आकर चोंचे मारें टस से मस होता ही नहीं है चौंक उठता है, जब बारिश की बूँदें आ कर चुभती हैं धीरे धीरे हाँफने लग जाता है उसके पेट का पानी।
रात पश्मीने की
by Gulzar
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