घर छोड़ आई हूं

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धुंधली सी स्मृतियां हैं बस,
पलों की खूबसूरती शायद घर छोड़ आई हूं|

खाना यहां भी ठीक ठाक बना लेती हूं,
पर वो अममा कें खाना के बाद उंगलिया चाटना शायद घर छोड़ आई हूं |

सर्दी हल्की होती है यहां,
तोह वो उनी पश्मीना की खुशबू शायद घर भूल आईं हूं।

हंसती यहां भी हूं लेकेइन,
वो ठहाके लगाना शायद घर छोड़ आई हूं।

गाने सुनती हूं यहां भी,
पर वो जगजीत सिंह की गाजल पर गुनगुना शायाद घर छोड़ आयी हूं।

नींद आ तोह जाती है यहां भी,
पर वो बेफक्री के खर्राटे शायद घर छोड़ आई हूं।

घूमने यहां भी जाती हूं पर वो बेफिक्री कहां,
वो दिल्ली जैसे आंखे बंद कर खर्चना , शयाद घर छोड़ आई हूं|

कुछ सपने है आंखो में, कुछ उमीदों का बोझ कंधो पर,

बस इीलिए घर छोड़ आई हूं, बस इीलिए घर छोड़ आई हूं

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Published on April 14, 2021 08:25
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