पुस्तक समीक्षाः एक थे फूफा में उपन्यास होने की संभावना है
एक थे फूफा, एक फूफा का रसदार ब्यौरा है जो एकदम भदेस किरदार हैं, और अस्पष्ट से ब्यौरों के बीच उनके बचपन से लेकर उनके हैं से थे होने का सफर पूरा होता है. 32 पृष्ठों की इस किताब में उपन्यास होने की संभावना है
पुरातत्व विशेषज्ञ और संस्कृतिकर्मी कई दफा समाज की नब्ज पकड़ने वाला हो तो इसका असर उसकी भाषा पर पड़ना लाजिम सा लगता है. ऐसे ही हैं छत्तीसगढ़ के पुरातत्व विशेषज्ञ और संस्कृतिकर्मी राहुल कुमार सिंह. उनकी पतली सी कितबिया है एक थे फूफा, जो लंबी कहानी या रेखाचित्र सरीखी है और उसमें एक बढ़िया उपन्यास का शानदार कथ्य और शैली तो है ही, संभावना भी है.
बहुत मुमकिन है कि राहुल कुमार सिंह अपने पाठकों की नब्ज टटोल रहे हों.
राहुल कुमार सिंह की किताब एक थे फूफा का कवरमहज 32 पृष्ठों और 50 रुपए कीमत वाली यह किताब आप एक ही बैठक में खत्म कर देंगे. वजह इसका आकार नहीं है, वजह है फूफा का रसदार ब्यौरा. फूफा एकदम भदेस किरदार हैं, और अस्पष्ट से ब्यौरों के बीच उनके बचपन से लेकर उनके हैं से थे होने का सफर पूरा होता है. असल में किताब की पहली पंक्ति है, एक थे फूफा (और यही शीर्षक भी है) और साथ ही में यही किताब की आखिरी पंक्ति भी है.
गांवों-कस्बों से ताल्लुक रखने वाले पाठक फूफा जैसे किरदारों से मिले जरूर होंगे और जाहिर है, फूफा से उनका जुड़ाव भी पन्ना-दर-पन्ना बढ़ता जाएगा.
फूफा समझिए गांव के रसिक व्यक्ति हैं जो पंचायत में पंच की कुरसी पर बैठते हैं, आस-पड़ोस की खबर रखते हैं. बचपन से कुशाग्र रहे हैं और दादाजी के बाद जायदाद की साज-संभाल में सत्ता हस्तांतरण पिता को शामिल किए बिना खुद कूद कर ताज हथिया लेते हैं. उनके जगत फूफा होने में कहीं कोई संदेह नहीं.
उनके पास जिंदगी का खासा तजुर्बा है और वह इस कदर है कि बैठे-ठाले जीवंत किस्से गढ़कर 'सच की लय' में सुना दें.
पर फूफा का 'फू-फा' और 'फूं-फा' और इसी तरह के अन्य शाब्दिक खिलवाड़ रोचक है, जिस तरह फूफा का अपने अधिकारों के प्रति सचेत होना 'जागते रहो' फिल्मप देखकर और पारिवारिक मिल्कियत हाथ में लेना 'लैंडलार्ड' धोती पहनते हुए.
भाषा में रवानगी तो गजब है पर छत्तीसगढ़ी भाषा की वजह से आंचलिकता का यह पुट कुछ अधिक होने पर अखरता भी है. पर, छत्तीसगढ़ के पाठकों को इसमें रस मिलेगा, अपनत्व भी.
एक थे फूफा में बीड़ी (किताब में बिड़ी) का सविस्तार और सप्रसंग विवरण है और इतना बारीक है कि ऐसी मिसाल सिर्फ एक जगह और मिलती है, वह है ज्ञान चतुर्वेदी की बारामासी. पर वहां बुंदेलखंड का ब्यौरा है, यहां छत्तीसगढ़िया तहजीब का. पर, एक थे फूफा में बीड़ी को सजाने और इसको पीने की परंपरा का अगली पीढ़ी तक जाने का ब्यौरा वाकई कमाल है.
कहानी अमूमन एकरेखीय नहीं है. यह कई पाठकों को भटका सकता है पर रसरंजन के शौकीनों के लिए अलग किस्म का शिल्प का मजा साबित हो सकता है. कुल मिलाकरः गागर में सागर, जिसमें एक उपन्यास होने की पूरी संभावना है.
किताबः एक थे फूफा
लेखकः राहुल कुमार सिंह
कीमतः 50 रुपए
प्रकाशकः वैभव प्रकाशन
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पुरातत्व विशेषज्ञ और संस्कृतिकर्मी कई दफा समाज की नब्ज पकड़ने वाला हो तो इसका असर उसकी भाषा पर पड़ना लाजिम सा लगता है. ऐसे ही हैं छत्तीसगढ़ के पुरातत्व विशेषज्ञ और संस्कृतिकर्मी राहुल कुमार सिंह. उनकी पतली सी कितबिया है एक थे फूफा, जो लंबी कहानी या रेखाचित्र सरीखी है और उसमें एक बढ़िया उपन्यास का शानदार कथ्य और शैली तो है ही, संभावना भी है.
बहुत मुमकिन है कि राहुल कुमार सिंह अपने पाठकों की नब्ज टटोल रहे हों.
राहुल कुमार सिंह की किताब एक थे फूफा का कवरमहज 32 पृष्ठों और 50 रुपए कीमत वाली यह किताब आप एक ही बैठक में खत्म कर देंगे. वजह इसका आकार नहीं है, वजह है फूफा का रसदार ब्यौरा. फूफा एकदम भदेस किरदार हैं, और अस्पष्ट से ब्यौरों के बीच उनके बचपन से लेकर उनके हैं से थे होने का सफर पूरा होता है. असल में किताब की पहली पंक्ति है, एक थे फूफा (और यही शीर्षक भी है) और साथ ही में यही किताब की आखिरी पंक्ति भी है. गांवों-कस्बों से ताल्लुक रखने वाले पाठक फूफा जैसे किरदारों से मिले जरूर होंगे और जाहिर है, फूफा से उनका जुड़ाव भी पन्ना-दर-पन्ना बढ़ता जाएगा.
फूफा समझिए गांव के रसिक व्यक्ति हैं जो पंचायत में पंच की कुरसी पर बैठते हैं, आस-पड़ोस की खबर रखते हैं. बचपन से कुशाग्र रहे हैं और दादाजी के बाद जायदाद की साज-संभाल में सत्ता हस्तांतरण पिता को शामिल किए बिना खुद कूद कर ताज हथिया लेते हैं. उनके जगत फूफा होने में कहीं कोई संदेह नहीं.
उनके पास जिंदगी का खासा तजुर्बा है और वह इस कदर है कि बैठे-ठाले जीवंत किस्से गढ़कर 'सच की लय' में सुना दें.
पर फूफा का 'फू-फा' और 'फूं-फा' और इसी तरह के अन्य शाब्दिक खिलवाड़ रोचक है, जिस तरह फूफा का अपने अधिकारों के प्रति सचेत होना 'जागते रहो' फिल्मप देखकर और पारिवारिक मिल्कियत हाथ में लेना 'लैंडलार्ड' धोती पहनते हुए.
भाषा में रवानगी तो गजब है पर छत्तीसगढ़ी भाषा की वजह से आंचलिकता का यह पुट कुछ अधिक होने पर अखरता भी है. पर, छत्तीसगढ़ के पाठकों को इसमें रस मिलेगा, अपनत्व भी.
एक थे फूफा में बीड़ी (किताब में बिड़ी) का सविस्तार और सप्रसंग विवरण है और इतना बारीक है कि ऐसी मिसाल सिर्फ एक जगह और मिलती है, वह है ज्ञान चतुर्वेदी की बारामासी. पर वहां बुंदेलखंड का ब्यौरा है, यहां छत्तीसगढ़िया तहजीब का. पर, एक थे फूफा में बीड़ी को सजाने और इसको पीने की परंपरा का अगली पीढ़ी तक जाने का ब्यौरा वाकई कमाल है.
कहानी अमूमन एकरेखीय नहीं है. यह कई पाठकों को भटका सकता है पर रसरंजन के शौकीनों के लिए अलग किस्म का शिल्प का मजा साबित हो सकता है. कुल मिलाकरः गागर में सागर, जिसमें एक उपन्यास होने की पूरी संभावना है.
किताबः एक थे फूफा
लेखकः राहुल कुमार सिंह
कीमतः 50 रुपए
प्रकाशकः वैभव प्रकाशन
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Published on January 22, 2020 06:04
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